Monday, September 7, 2015

हम भी हैं तनहा रुक जाओ न यहाँ






कलम से____

रात देर सबेर
खुलती है आँख जब भी
निकल पड़ता हूँ
नंगे पाँव ही चल पड़ता हूँ
ठंडी ठंडी जमीन पर
पाँव जब हैं पड़ते
लगता है जैसे आसमां पर चला हूँ
दूधिया तारों की चादर तले
चलता रहता हूँ यही सोच कर
पड़ोस से आवाज देगा कोई
बुला लेगा मुझको
ज़िक्र अपनी तनहाई की करेगा
रुको जाते हो कहाँ अकेले अकेले
हम भी हैं तनहा रुक जाओ न यहाँ
पास हमारे रात भर के लिए
भोर होत ही जाना चले
जाना तुम्हें है जहाँ.....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

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