Sunday, March 15, 2015

टूटते कंगूरों में





कलम से____

टूटते कंगूरों में
महलों की दीवारों में
किले की अटारी में
छिपी हैं-
कहानियाँ दर्दनाक
मज़बूर हसरतों की.....

सूखे कछारों में
टूटे कगारों में
छिपी हैं-
उदंड नदी की भयाहवता
उसका हाहाकरी ठहाका....

बच्चों, बूढों का
असहाय चीखना
हाथ-पैर मारना
डूबते लोगां का आर्तनाद....

सूखी रेत पर
लहरों के निशानों पर
बहे चूके गावों की संस्कृति
उनका इतिहास....

विनाश लीला के पीछे
पसरी हुई स्तब्धता
स्मरण कराती हुई
बीते हुए कल की
और
एकांत क्षणों में
आती है दूर से
बिलखती हुई
किसी अबोध की आवाज़....

हाय ! हाय ! कल कल.....

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/

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