Sunday, February 1, 2015

पार्क की बैंच


कलम से____

पार्क की बैंच पर बैठ फिर यह लगा
गुज़रा हुआ वक्त मुट्ठी में समा गया
खुले आसमान के नीचे बैठ
लगा जिन्दगी को नया आयाम मिल गया

महीने से ऊपर की घुटन अब मिट गई
सर्दी भी बहुत कुछ अब कम जो हो गई

नहीं अब तक दिखे जो रोज़ दिखते थे
आ जाएंगे नज़र इन आँखों में जो बसते थे
होने लगेंगी मुलाकातें फिर से
निगाह बचाने की कोशिश जो किया करते थे

दो एक रोज़ की बात है बस
हम भी होंगे औ' वो भी होंगे 
आमने सामने बस यहाँ.....

It's' for my friends, who visit Kuashambi Central Park everyday. Some of them I could see today and some would become visible in a day or two.

©सुरेंद्रपालसिंह 2015
http://spsinghamaur.blogspot.in/


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