Tuesday, December 30, 2014

शाम होते ही धुआं धुआं सा हो जाता है

कलम से____
शाम होते ही
धुआं धुआं सा हो जाता है
कहने को
बहुत कुछ है
जो यह कह जाता है
दिल के किसी कोने में
धुआं धुआं सा आज भी रहता है
पीछे से कोई
झांक कर यह कहता है
भूल न जाना मुझे
मैं भी हूँ यहाँ
बसेरा था, कभी मेरा यहाँ
कैसे भूल जाऊँगा
कोहरे भरी शाम
हाथों में ले हाथ
हम निकल पड़ते थे
अपनों ही से नहीं
सबसे छिपते फिरते थे
चाँदनी में रुखसारों के
पीछे से तुम निहारा करते थे
दिन सुहाने
मंजर रंगीन हुआ करते थे
वो भी क्या दिन थे
कुछ अजीब से
हुआ करते थे
फुर्र से जोड़ा
कबूतर का उड़ पेड के पीछे से
निकल जाता था
चौंकाने
के लिए हमें काफी था
नदी के साज
पर मल्लाह
गीत गाता था
हवा के हर झकोले पर
तेरा बदन मेरी बाहों
में झूल जाता था
तसुब्बरात की परछाइयाँ
उभरतीं थीं
अपनेआप में
न जाने कितनी कहानियाँ
बयां करतीं थीं
दूर बहुत दूर
निकल आये हैं
अंधेरा है बढ चला
चलो वापस चलें हम अपने यहाँ
शुरू हुआ था सफर
चल चलें हम फिर वहाँ।
//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//
— with Puneet Chowdhary.


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