Sunday, November 30, 2014

मैंने जब यह स्लाइड देखी

कलम से_____

मैंने जब यह स्लाइड देखी
     खुश हुआ
लगा जीवन का मूल मंत्र मिल गया
जैसे जैसे दिन बीतता गया
असर स्लाइड का कम होता गया
अक्सर ऐसा ही होता है
जब मन को
कुछ भाता है
बहुत अच्छा वह लगता है
मिल जाता है
लगता है खुदा की नेमत मिल गई
 न मिले तो लगता है
दुनियां ही उजड़ गई
खासतौर पर यह बात
खरी उतरती है
जो कभी धीरे धीरे 
    या फिर
अचानक अच्छे लगने लगते हैं
जो हमारे आसपास ही रहते हैं
कुछ तो अपनों में से ही होते हैं

जब हम दिल की सुनते हैं
 कामयाब होते हैं
नहीं सुनते हैं दिल की
इधर उधर की सुनते हैं
बात जिन्दगी की है नहीं बनती
  बिगड़ती है 
बिगड़ती ही चली जाती है

करो यार मन की
सुनो अपने दिल की
     बात है असली यह पते की

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Friday, November 28, 2014

कलम से____

बस स्टॉप पर
लोहे की रेलिंग पर
एक लड़का फालतू बैठा
सरदी के मौसम में
धूप का मजा
ले रहा था
एक लिफाफे से निकाल
मूंफली मेवा खा रहा था
एक लड़की
बस के इंतजार में
आकर पास ही
बैठ गई
मनचले लड़के से
रहा न गया
मूंफली का लिफाफा
उस लड़की की
ओर बढ़ा कर बोला
'गरीब हूँ न खुशियाँ बाँट सकता हूँ
न सही चाकलेट
यह सर्दी की मेवा तो आपकी खिदमत में पेश कर सकता हूँ'
लड़की ने मुस्कुराते हुये मूंफली ले ली
छिलके फेंकने के लिए दूसरी थैली पेश कर दी।

हम जैसे बुजुर्ग यह सब देख बिस्मित हो रहे थे
 जवानी के दिनों को याद कर मन ही मन खुश हो रहे थे।

पैक अप। 
आवाज कान में पड़ी
 पता लगा कि यहाँ
स्वच्छ भारत अभियान की शूटिंग हो रही है।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Thursday, November 27, 2014

भोर होते ही

दरिया का शोर

जरूरी नहीं रौशनी चिरागों

मुझे बदनाम करने

It's good to sit alone for at least some time everyday.

आ़ंँख भारी है हो रही

कौन कहता है

खिडकी के पास से

चोट जो सीने पर

सूरज देर से निकले तो क्या

कलम से_____

सूरज देर से निकले
तो क्या
यहाँ आना जाना
सुबह से देर रात
तक लगा रहता है
भीड़ है उतरने वालों की
चढ़ने वाले भी कम नहीं
बस स्टॉप पर 
दो पल के लिए रुकती है
फिर दूसरी आ जाती
जिन्दगी अपनी रफ्तार
यूँही चलती रहती है

न जाने कितने 
आते जाते कितने दिल मिलते हैं
कितनों के टूटे जाते हैं
सपने यहाँ बनते है
बिखर जाते हैं

एक बाबा यहीं
सोता है सरद रातों में
ठिठुरा करता है
तरस खा कभी कोई कुछ दे देता है
इस तरह गुजारा
उसका होता है
बहुत सपने संजोए आया था
गांव अपना छोड़
काम करूँगा आगे बढूँगा
एक भी स्वप्न पूरा न हुआ
चलती फिरती लाश हो गया 
न जाने कब आस पूरी होगी
जो अधूरी सी है अधूरी ही रहेगी
अबके जाड़ा न कटेगा 
बस स्टॉप से ही
 आखिरी टिकट कटेगा
फर्क न कोई भी महसूस करेगा
कोई आये या जाये
जीवन है बस ऐसे ही चला करेगा

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Tuesday, November 25, 2014

Dr. Verghese Kurien


Today, we celebrate the birthday of Dr. Verghese Kurien and also it is national milk day in India.

We salute this man for his visionary work to take new look on Indian milk industry. Amul is international brand now with which dairy products are known. It's his hard work.

I have some queries on milk farming in India and seeking answers and have failed so far.

1 Can any one give hardcore figures of livestock in India and State wise.
2 Collectively how many liters of milk one may expect from this livestock. Again nationally and State wise.
3 How much milk India is producing synthetically on all India basis and State wise.
4 Anyone has idea of adulterated milk being produced in India.
5 What's the control mechanism in India to check adulteration.
6 How many individuals penalised so far year wise and State wise.
7 Are these law's are sufficient or some hard measures are required to put in place to checkmate.
8 What's the growth plan for dairy products with expected rise in population.
9 What's the size of Indian milk economy.
10 Can this really do wonders in village life?
11 Does any one know that milk supply to urban areas have high cost burden and scope exist to redifine the existing systems.
12 Does any one know that everyone in the country is eating adulterated food items including dairy and farm products.

Think and if you find merit please raise your voice in electronic media.

Thanks.

खोज करते करते



कलम से____

खोज करते करते
रात कल वो
 दिख गया
तारों के बीच हँस रहा था
कुछ शरमाता हुआ
प्यारा सा अपना चाँद
आसमान में टकटकी लगाये
मुझे ही देखता हुआ
मिल गया

पूछा जब अकेले हो क्यों
कहने लगा, कहाँ हूँ मैं अकेला 
साथ है यामिनी और चाँदनी
साथ है नभ और तारे यहाँ
साथ है सूरज भी मेरे
 बिना जिसके बजूद मेरा कहाँ
साथ हैं मेरे
टकटकी लगाए देखता यह जहां ...

मेरे पास पत्नी जी भी आ गईं
हाथ उनके अपने हाथ लेकर
हम दोनों निहारते रहे यह समां....

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Monday, November 24, 2014

तुम दोनों हो मित्र मेरे...




कलम से____

तुम हो दोनों मित्र मेरे
कैसे कह दूँ
एक को अलविदा
चाहूँगा कुछ देर के लिए
तुम ऐसे ही ठहर जाओ
जाने वाले कुछ पल को रुक जाओ
आने वाले तुम भी पल दो पल को थम जाओ।

नहीं रुकोगे, नहीं रुकोगे
चलो फिर तुम जाओ
तुम भोर बन आओ
प्रकाशित जग को कर जाओ।

अलविदा भी
स्वागत भी........

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Sunday, November 23, 2014

कुछ बात तो है.........


कलम से____

 की पोस्ट पर
मेरे एक दोस्त ने
लिखा कुछ बात तो है
मैं समझ नहीं पाया
आखिर ऐसी क्या खता हो गई
फिर मुझे लगा कि उनके
बात में कोई बात है
फिर मैंने अपनी
यह प्रोफाइल पिक देखी
मुझे भी लगा कुछ बात है
तब मेरी समझ में आया
उन्होंने क्यों लिखा कुछ बात है।

और पीछे जिन्दगी में
झांकना चाहता नहीं
कई और न मिल जायें
कहने वाले इस शक्स में कुछ बात तो है।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

बाबूजी की छड़ी।




कलम से____

बाबूजी की छड़ी
अचानक आज याद आ गई
बहुत काम करती थी
सहारनपुर से आई थी
चलते फिरते में साथ
हमेशा उनके रहती थी।

सोचा है अबकी बार गांव जाऊँगा
कुछ और नहीं उसे साथ ले आऊँगा

याद आ गईं कुछ पंक्तियाँ जो बचपन में थी पढ़ीं.......

लाठी में हैं गुण बहुत, सदा रखिये संग।
गहरि नदी, नाली जहाँ, तहाँ बचावै अंग।। 

तहाँ बचावै अंग, झपटि कुत्ता कहँ मारे।
दुश्मन दावागीर होय, तिनहूँ को झारै।।

कह गिरिधर कविराय, सुनो हे दूर के बाठी।
सब हथियार छाँडि, हाथ महँ लीजै लाठी।।

(अभी तुरंत ज़रूरत नहीं पड़ रही है पर पड़ेगी कुछ साल बाद)

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Saturday, November 22, 2014

ऐ जिन्दगी मेरी हसीन तब होती।



कलम से____

ऐ जिन्दगी मेरी हसीन तब होती
जब मेरे चाहने से हर दुआ कुबूल होती
कहने को हर किसी ने कहा मुझे अपना
आकर पास वो मेरे पल दो पल बैठता
और कहता
दर्द तेरे सीने में उठता है
तकलीफ मुझे होती है !!!!!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Bahut pyar karate the na

Har taraf tam hai

kitani ranginiyat hai bikhari hui

Yah kisne li angdai

चितवन वृक्षों की एवेन्यू



कलम से____

चितवन वृक्षों की
एवेन्यू
से गुजरते हुए
मन अत्यंत प्रसन्न हुआ
उसके फूलों के
खिलने का आभास हुआ
नैसर्गिक आनंद की
अनुभूति हुई
खुशबू जब उसकी
नासिका में पड़ी।

कुछ लोगों को
यह नशेमन सी लगती है
किसी को यह समझ नहीं आती है
किसी के सिर में यह दर्द करती है
मैं अपनी बात कहता हूँ
मुझे यह बहुत अच्छी लगती है।

यह खुशबू अब हर रोज़ मिलेगी
होलिकोत्सव तक मन मोहती रहेगी
यहाँ आने को प्रेरित करती रहेगी
और भी पेड़ पौधे हैं यहाँ जो आकर्षित करते हैं
हम जैसे कुछ लोग यहाँ बस इसीलिए आते हैं
आओ एक दिन तुम, तुमको भी दिखलाऊँ
जो न कह सका तब, शायद अब कह पाऊँ.....

आओ एक दिन धूप का आनंद उठायें
कुछ पुराने गीत गुनगुनायें.....

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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जब ईख हमारे यहाँ होती थी।




कलम से____

जब ईख हमारे यहाँ होती थी
गन्ने लाल रंग के होते थे
खाने में स्वादिष्ट बड़े होते थे
भट्टी जब चलती थी
रस पीने को
राव खाने को मिलती
गुड़ की भेली बनती थी
गन्ने की खेती अब नहीं होती
हमें हमारे गाँव की याद बहुत आती है.....

Control diabetes.

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Thursday, November 20, 2014

न यह सूरज है, न है चाँद।





कलम से____

न यह सूरज है
न यह है चाँद 
किसी कलाकार
की कल्पना है मात्र,
मैं जानता हूँ मानता हूँ
बस इसे एक
बुलबुला,
हम सबके जीवन
के समान।

स्वच्छंद वायुमंडल में
घूमो फिरो
लोगों के जीवन को
सतरंगी और आनंदित करो
फिर अपनी राह चलो।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Wednesday, November 19, 2014

कितनी रंगीनियत बिखरी हुई है।



कलम से____

कितनी रंगीनियत है बिखरी हुई
आने जाने वालों का दिल फिदा हो ही जायेगा
बुलाएगा भला जब अपना कोई यहाँ
कदम अपने आप चले आयेगें यहाँ !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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अनमने मन से।

कलम से______

अनमने मन से 
कल रात से
चाँद को ढूंढता रहा
कब वह सागर के सीने
पर हस्ताक्षर करेगा
कब वह मुझे दिखेगा....

न दिखा कल रात
न दिखा आज प्रातः भोर
के पहले पहर में
न जाने खो गया है कहां
 ढूंढू तो ढूंढू उसे कहाँ ....

आखिरी प्रयास है मेरा
  ढूंढ कर मानूँगा मैं
खो गया है चला गया है
क्यों दूर इतना
हो गया है ओझल
   निगाहों से क्यों
कल्पना की प्रतंन्च्या पर चढ़ वाण बन
  मैं चला नभ मंडल की ओर
     चाँद की खोज में
        ढूँढ कर है लाना है मुझे वापस धरा पर
             तक रहे हैं उसे न जाने कितने प्यासे नयन.....

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Tuesday, November 18, 2014

हर तरफ है, है तम का घेरा।

कलम से_____

हर तरफ तम है, है तम का घेरा
कौन कहता है, है ये अदभुत सवेरा।

चाहती है किरन कि चमके मगर
खुद दिवा पर घना है अंधेरा।

फूल रोते हैं, शूल हँसते हैं
यह कौन सा है चितेरा।

घोंसला हमने खुद उजाड़ा
अब ढूँढते हैं, कहाँ है बसेरा।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Monday, November 17, 2014

पिंजरे में बंद मैना।

कलम से_____

"पिंजरे में कैद मैना"

आजकल की जिंदगी
से भागना चाहो
फिर भी भाग नहीं सकते
पंख हैं नौंच दिए गए
बंद हैं आप
पिंजरे में मैना की तरह।

दर्द का अहसास होता अगर
एक बादशाह
यूँ न करता बंद
दूसरे बादशाह को,
मुसम्मन बुर्ज से तकते तकते
थका जो नहीं
अपने बनाये इस्तकबाल को
ताज को मुमताज महल की याद को
बंद था कोई तब भी
बंद है कोई आज भी
पिंजरे में मैना की तरह।

रहता हूँ, कहने को
बहुमंजिला इमारत में
आसमां को छूते हुए
खुदा के करीब
ज़मीन से दूर बहुत दूर
जो पहले ही कहीं छूट गई
मिलेगी न जाने फिर कभी
या शायद कभी भी नहीं।

यही है जिन्दगी, यहाँ
बंद, पिंजरे में मैना की तरह।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Sunday, November 16, 2014

चौराहे के पास घर है मेरा।

कलम से____

चौराहे के पास घर है मेरा
पता ढूंढना आसां है
सुबह सुबह से चहल पहल
बसों के हार्न ट्रकों के टायर की आवाज आती रहती है
मुसाफिरों की चिल्लपों अलग से कानों में पडती रहती है
 शांति नहीं हैं पर अब इसी अशांति में शांति मिलती हैं
शहरों की भीड रास नहीं आती
पर यह जगह भी अब छोड़ी नहीं जाती
यह एक मजबूरी है
 मजबूती की यह मजबूरी है।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Saturday, November 15, 2014

कुछ रंगरसिया लोग पार्क में......








कलम से____

कुछ रंगरसिया
पार्क में नारे थे लगा रहे
भारत माता की जै
एक सिरफिरा पूछ बैठा
क्या हो गया अचानक इन्हें, अच्छे खासी थे
क्यों भड़का रहे हैं सीधे साधे लोगां को
बेकार ही लडाई का माहौल बना रहे हैं
"भारत माता" का नाम एक जज्बा है
हर दिल में जो बसता है
नाम जिसका ले फौजी मैदाने-जंग उतरता है
दुश्मन की तोड़ कमर चैन लेता है।

शान्ति इस देश में कुछ दिन बनी रहने दो
अशान्ति  फैले  ऐसा  कोई  न  करो।

Today, scores of RSS workers stormed our Kauashambi Central Park and disturbed peaceful environment.

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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जाओ हम तुम्हारी बात एकु न सुनेगें।

कलम से____

जाओ हम तुम्हारी बात एकहु न मानेंगे
रूठे हैं तोसें रूठे ही रहेंगे
का भयो राधिके बतइय्यो तो जरा
पतौ तो लगे काज है का
कहनि लगी राधिका मुँह बनायकें
रास खेलवेकों कल चों न आये
हम तुम्हारे इंतजार में बैठे रहे नैना बिछाये
बसि इतत्ती सी बात पै रूठी है मेरी रानी
आओ खेलें रास सखिंयन संग सुनो मेरी वाणी।।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Friday, November 14, 2014

चचलते चलते।



कलम से____

चलते चलते
उस पड़ाव पर आकर रुक गया
जहाँ आकर महसूस यह हुआ
आगे यहाँ से अब जा न पाऊँगा
गया आगे तो फिर कभी लौट न आ पाऊँगा।

आवाज देकर बुला लिया तुमने
मैं यहाँ से आगे अब न आ पाऊँगा।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Thursday, November 13, 2014

अरे भाई, अब तो सरदी आ ही गई।




कलम से____


अरे भाई, अब तो सरदी आ ही गई
कहा था मैंने सुबह चाय के पियाले पर
लौट के देखता हूँ, तो पाता हूँ
निकले पड़े हैं तमाम स्वेटर, मफलर, टोपियां, सूट, कोट पेन्ट वगैरह वगैरह
पूछा जब क्यों, पता लगा
धूप है जो दिखानी
है कपूर की गोलियों की खुशबू भरी हुई
है उसको उड़ाना।

सुन, चुप हो गया
बरामदे में चारपाई बिछा
धूप आने का इंतजार करता रहा।

कुछ देर बाद चाय लेकर वो भी आगईं
पास ही मूढ़ा ड़ालकर बैठ गईं
कहने लगीं, अब कुछ गरम कपड़े बनबा लो
जल्दी पकड़ती है, सरदी तुम्हें
लग न जाये कहीं बचत किया करो
बचत ही तो कर रहा हूँ, इसीलिए नहीं खरीद रहा
क्या करना है काम चल ही रहा
तुम नहीं खरीदो, हम तो खरीदेंगे अपने लिए
चलेंगे बाजार, कहा मैंने, आज ही कल पर न छोड़ेगे
तुम्हें जो चाहिए आज ही खरीदेंगे।

निगाहों में निगाह ड़ालकर बोलीं,
बाहर निकला करो जब
थोडा नीविया लगा लिया करो
वहीं ड्रेसिंग टेबल पर पडी है
खुश्की चेहरे की कुछ कम हो जायेगी
रौनक थोड़ी फिर वापस आ जायेगी
हाथों में हाथ उनका लेकर हमने कहा
रौशन रहें तुम्हारी यह खूबसूरत सी आखें
हमारी जिन्दगी हैं यह
भला हो इनका इन्हें फिर से दिखने लगा है
रौशन रहे दुनियां तुम्हारी हमें क्या करना है
हमें अब यह जहां तुम्हारी नज़रों से देखना है।

चलो हटो भी, अठखेलियां न किया करो
नजरें के तीर इस तरह चलाया न करो
चलना है साथ साथ इस लंबी राह पर
छोड़कर चल न देना बीच में यह डगर।

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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कलम से_____

आओ बच्चों चाँद से आगे चलें
मंगल पर हैं निशान अपने
सौर मंडल में अब और आगे बढें
नित नये हम काम कुछ ऐसा करें
हिन्दोस्तां का नाम रौशन करें !!

बाल दिवस के उपलक्ष्य में चाचा नेहरू के विचारों से प्रभावित सौर मंडल को खंगालने को प्रेरित करती हूई एक तुच्छ भेंट।

    //सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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Wednesday, November 12, 2014

कल शाम से ही मस्त मस्त हवा क्या चली।



कलम से_____

कल शाम से मस्त मस्त हवा क्या चली
जो छिपी खड़ी थी कहीं अचानक सामने आगई
कहने लगी उतार डालो अपना लखनुआ लिवास
लग अगर गई मैं पड़ जाओगे बिस्तर पर ले लिहाफ
लिफाफा बने रहने के दिन हवा हो गये
गर्म कपड़े पहनने के दिन अब आ गए।

स्माग भी हवाओं के बहने से छट गया
पार्क में घूमने का मौसम फिर से आगया
हो जाया करेगी अब उनसे मुलाकात
जिनसे मिले बिना चलता नहीं दिमाग।

हमारे कुछ दोस्त यूँही जला करते हैं
मार्केट में रेट हमारा पूछा करते हैं
कहते हैं उम्र हो गई है चाहने वाले अभी भी इनके हैं
न जाने कौन सी बात है जिस पर फिदा रहते हैं।

(आज मौसम खुल गया और पार्क में घूमने जाने से न रोक पाया।वहां जो बन गया वह आपके समक्ष प्रस्तुत है)

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//

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लाशों के इस ढेर पर कैसे चलूँ।

कलम से____

लाशों  के  इस  ढ़ेर  पर  कैसे  मैं चलूँ
मुर्दों के शहर में आकर अब क्या करूँ !!

नित नए इरादे लेकर आते हैं कुछ लोग
सफल होते हैं कुछ हो जाते कुछ फेल !!

अरमान थे जितने मिट्टी मिल गए
काम हमारे सब बीच में ही रह गए !!

कहाँ  तक  मैं  इनकी  आस  बनूँ
इनके लिए मैं अब क्या क्या न करूँ !!

घर से दूर बहुत कुछ हैं आ गए
अपना सब कुछ यहाँ आकर भूल गए !!

वापसी इनकी मुमकिन नहीं होगी
राख भी सरजमीं अब न पहुंचेगी !!

जिन्दा देखने में नजर आते हैं जरूर
आकर शहर इनको हो गया है गुरूर !!

//सुरेन्द्रपालसिंह © 2014//



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