Tuesday, September 2, 2014

कल था राधा माई का जन्मदिन ।

सुप्रभात मित्रों !
Good morning friends
09 03 2014

कल राधा माई को जन्मोत्सव था। मुझे ध्यान ही न रहा जब नैट में गूँज सुनी तो क्षोभ हुआ। शान्ति के लिए कुछ पढने का मन कर रहा था सो यह आर्टिकल सामने पड़ा मिल गया, आज भोर के सुप्रभात में मित्रों के साथ बांटने को ठीक लगा सो यह अब आपकी नज़र है।

जीवन एक उत्सव है और इसे इसी रूप में भगवान का प्रसाद समझ ग्रहण करना चाहिए।

राधा! होली ही खेल रहा हूं। कभी होली, कभी होला। चौबीस घंटे वही चल रहा है, तुम्हें रंगने के ही धंधे में लगा हूं। रंगरेज ही हो गया हूं। काम ही कुछ और नहीं कर रहा। जो आदमी मुझे दिखता है, बस मैं उसे रंगने में लग जाता हूं। इसलिए जो रंगे जाने से डरते हैं, वे मेरे पास ही नहीं आते। वे दूर—दूर रहते हैं। कहीं रंग की कोई बूंद उन पर न पड़ जाए!

मैं अपने रंग में ही तुम्हें रंग रहा हूं। यहां होली वर्ष में एकाध दिन नहीं आती, होली ही चलती है। सब दिन एक से हैं। और सब दिन रंगने का काम ऐसे ही चलता रहता है।

एकाध दिन होली क्या खेलनी!

एकाध दिन होली खेलने के पीछे भी मनोविज्ञान है। यह जो दिन की होली है, इस तरह के उत्सव सारी दुनिया में हैं— अलग— अलग ढंग से, मगर इस तरह के उत्सव हैं। यह सिर्फ इतना बताता है कि मनुष्यता कितनी दुखी न होगी। एक दिन उत्सव मनाती है, और तीन सौ पैंसठ दिन शेष—दुखी और उदास। यह एक दिन थोड़े मुक्त भाव से नाच—कूद लेती है। गीत गा लेती है। मगर यह एक दिन सच्चा नहीं हो सकता। क्योंकि बाकी पूरा वर्ष तो तुम्हारा और ही ढंग का होता है। न उसमें रंग होता है, न गुलाल होती है। तुम पूरे वर्ष तो मुर्दे की तरह जीते हो और एक दिन अचानक नाचने को खड़े हो जाते हो! तुम्हारे नाच में बेतुकापन होता है। तुम्हारे नाच में जीवंतता नहीं होती। जैसे लंगड़े—लूले नाच रहे हों। बस वैसा तुम्हारा नाच होता है। या जिनको पक्षाघात लग गया है, वे अपनी— अपनी बैसाखी लेकर नाच रहे हैं, ऐसा तुम्हारा नाच होता है। तुम्हारा नाच जब मैं देखता हूं होली इत्यादि के दिन, तो मुझे शंकर जी की बरात याद आती है। तुम्हें नाच भूल ही गया है। तुम्हें उत्सव का अर्थ ही नहीं मालूम है। इसलिए तुम्हारा उत्सव का दिन गाली—गलौज का हो जाता है।

जरा देखो, तुम्हारे गैर—उत्सव के दिन औपचारिकता के दिन होते हैं, शिष्टाचार—सभ्यता के दिन होते हैं। और तुम्हारे उत्सव का दिन गाली—गलौज का दिन हो जाता है! यह गाली—गलौज तुम भीतर लिए रहते होओगे, नहीं तो यह निकल कैसे पड़ती है? यह होली के दिन अचानक तुम गाली—गलौज क्यों बकने लगते हो? और रंग फेंकना तो ठीक है, लेकिन तुम नालियों की कीचड़ भी फेंकने लगते हो। तुम कोलतार से भी लोगों के चेहरे पोतने लगते हो। तुम्हारे भीतर बड़ा नर्क है। तुम उत्सव में भी नर्क को ले आते हो। और तुम्हारा उत्सव जल्दी ही गाली—गलौज में बदल जाता है। देर नहीं लगती! तुम्हारी असलियत प्रकट हो जाती है। तुम्हारा शिष्टाचार, तुम्हारी औपचारिकताएं सब थोथी हैं। ऊपर—ऊपर हैं। गाली ज्यादा असली मालूम होती है। क्योंकि जैसे ही तुम्हें मौका मिलता है, जैसे ही तुम्हें सुविधा मिलती है, तुम्हारे भीतर से गाली निकल आती है। काटे निकलते हैं जब तुम्हें सुविधा मिलती है। वैसे तुम बड़े भले मालूम पड़ते हो। वह भलापन तुम्हारा पुलिस के डर से है। वह भलापन तुम्हारा स्वर्ग—मोक्ष—नर्क इत्यादि के भय और लोभ से है। तुम्हारा परमात्मा भी एक बड़े पुलिसवाले से ज्यादा और कुछ भी नहीं है तुम्हारी आंखों में। वह तुम्हें डरा रहा है, डंडा लिए खड़ा है, कि सताऊंगा। लेकिन फिर भी इन सभी रुग्ण समाजों ने एकाध दिन छोड़ रखा है, क्योंकि नहीं तो आदमी पागल हो जाएगा। निकास के लिए ये दिन छोड़े गये हैं। नहीं तो गंदगी इतनी इकट्ठी हो जाएगी कि आदमी बर्दाश्त न कर सकेगा। और एक सीमा आ जाएगी जहां गंदगी अपने ही से बहने लगेगी। एक सीमा है, उसके बाद मैं ऊपर से बहने लगेगी। ये निकास के दिन हैं। ये असली उत्सव नहीं है। रंग वगैरह फेंकना ऊपर है, भीतर हिंसा है। तुमने देखा जब रंग एक—दूसरे पर लोग चुपड़ते हैं? तो उसमें कोमलता नहीं होती, न हार्दिकता होती, न प्रेम होता। एक तरह की दुष्टता होती है। तुम जाकर देख सकते हो! जैसे दूसरे को सताने की इच्छा है, रंग तो बहाना है। और रंग ऐसा पोत देना है कि बच्चू को याद रहे! दो—चार दिन छुड़ा—छुड़ा कर मर जाएं तो न छुटे! तुम्हारे भीतर कुछ गंदा, कुत्सित भरा हुआ है।

मेरी दृष्टि में जीवन पूरा उत्सव होना चाहिए। तो फिर होली इत्यादि की जरूरत न रहेगी। दीवाली एक दिन क्या? साल भर दिवाला, एक दिन दिवाली, यह कोई ढंग है जीने का? साल भर अंधेरा, एकाध दिन जला लिए दिये! साल भर मुहर्रम, एकाध दिन मना लिया जश्न; पहन लिये नये कपड़े चले मस्जिद की तरफ! मगर तुम्हारी शकल मुहर्रम हो गयी है। तुम लाख उपाय करो, तुम्हारी शकल पर मुहर्रम छा गया है। तुम्हारे सब उत्सव इत्यादि थोथे मालूम पड़ते हैं, उपर से मालूम पड़ते हैं। उत्सव का आधार नहीं है, बुनियाद नहीं है। उत्सवपूर्ण जीवन होना चाहिए। इसलिए मेरे इस आश्रम में न तो कभी दिवाली है, न कभी होली है। यहां सदा होली है, सदा दीवाली है। यहां चल ही रहा है, यहां नृत्य शाश्वत है। यहां जो भी नाचना चाहे उसे निमंत्रण है। और ख्याल रखना, एकाध दिन कोई नाच ही नहीं सकता। नाचता ही रहे, नाचता ही रहे, तो उसे नाचने का प्रसाद होता है, उसके नाचने में गुणवत्ता होती है, उसके नाचने में अपूर्व भाव होता है। और उसके नाचने में कोमलता, सरलता। उसके नाच में हिंसा नहीं होती। नहीं तो तांड़व नृत्य बन जाता है जल्दी ही नाच। तुम्हारे सब उत्सव तांड़व नृत्य हो जाते हैं। जल्दी ही गाली—गलौज पर नौबत उतर आती है। तुम्हारे सब उत्सवों में हिंदू—मुस्लिम दंगे हो जाते हैं।

यह बड़ा आश्चर्य की बात है!

उत्सव के दिन दंगा क्यों? मारपीट क्यों? एक—दूसरे को सताने की इच्छा क्यों? गाली— गलौज क्यों? गंदे— अश्लील नाच क्यों? ‘कबीर’ के नाम से गालिया दी जा रही हैं—हद्द हो गयी! गालिया बकते हो, उसको कहते हो— ‘कबीर’! कबीर को तो बख्‍शो !

पीछे कारण है।

तुम्हारा जीवन दमित जीवन है। एकाध दिन के लिए तुम्हें छुट्टी मिलती है, जैसे साल भर को कारागृह में बंद रहते हो, एकाध दिन के लिए छुट्टी मिलती है, सड्कों पर आकर शोरगुल मचा कर फिर अपने कारागृहों में वापिस लौट जाते हो। अब जो आदमी कभी—कभी सड़क पर आता है साल में एकाध बार, अपने काल—कोठरी से छुटता है, वह उपद्रव तो करेगा ही! उसके लिए स्वतंत्रता उच्छृंखलता बन जाएगी। लेकिन जो आदमी सदा ही रास्तों पर है, खुले आकाश के नीचे वह उपद्रव नहीं करेगा।

मैं चाहता हूं, तुम्हारा पूरा जीवन उत्सव की गंध से भरे, तुम्हारे पूरे जीवन पर उत्सव का रंग हो, इसलिए तुम्हें रंग रहा हूं। यह मेरा गैरिक रंग तुम्हारे जीवन को उत्सव में रंगने के लिए प्रयास है। यह गैरिक रंग सुबह ऊगते सूरज का रंग है। यह गैरिक रंग खिले हुए फूलों का रंग है। यह गैरिक रंग अग्नि का रंग है। जिससे गुजर कर कचरा जल जाता है और सोना कुंदन बनता है। यह गैरिक रंग रक्त का रंग है—जीवन का, उल्लास का; नृत्य का, नाच का। इस रंग में बड़ी कहानी है। इस रंग के बड़े अर्थ है। तो राधा! जिस रंग में मैं तुम्हें रंग रहा हूं उसमें पूरी तरह रंग जाओ। तो होली भी हो गयी, दीवाली भी हो गयी। और यही पृथ्वी तुम्हारे लिए स्वर्ग बन जाएगी।

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