Saturday, August 9, 2014

अंतस को चीर गई



अंतस को चीर गई
छिपी हुई सी थी जो
हिबडे के किसी कोने
में सुप्त्वस्था में याद
फिर जग गई, अंतस को चीर गई।

सिरहन सी उठती
है जब स्मृति सोई
जग जाती है अंतस
पीर पराई अपनी सी
क्यों लगती है जब
जब जगती उठती
है परेशानी बडती है
याद तेरी फिर, अंतस को चीर गई।

बार बार हम पीछे
हो जाते हैं जहां से
शुरू हुए वहीं फिर
जाते हैं हम अपने
आज में क्यों खुश
नहीं रह पाते हैं
लौट वहीं यादों से
घिर जाते हैं वादों में याद
तेरी फिर आई, अंतस को चीर गई।

घरौंदे यादों के यूँ
न छोडेंगे दिन जो
गुजारे थे परेशान और
अब दुखी करेगें याद
तेरी फिर आ गई, अंतस को चीर गई।

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