Thursday, August 28, 2014

सुबह नौ बजे।

सुबह नौ बजे।

हम तो भूले बैठे थे
ख्वाबों के सहारे जो रहना सीख लिया था
हकीकत से दूर ही नहीं बहुत दूर
चले गए थे।

एक ही झटके ने ला पटका था
440 वोल्ट का लगा झटका था।

कल रात अचानक
बत्ती घर की गुल हो गई
रात का दो बजा था
पावर बैकअप भी ठंडा पड़ा था।
करें क्या समझ कुछ नहीं आ रहा था
टेलीफोन सबस्टेशन को किया
एजयूजअल घंटी बजती रही
उधर से उत्तर न किसी ने दिया।

समझ आया बाबू
ज़माना बदल गया है
यह सबस्टेशन अब तुम्हारा नहीं है
अटेन्डेन्ट  एक नया छोकरा है
है नीदं उसको प्यारी
दारू जो पी थी नशा उतरा नहीं है
कैसे करेगा काम अब कोई
सोने में ही उसका भला है।

रात भर हम बिलबिलाते रहे
चक्कर इधर उधर लगाते रहे
आया समझ अब कुछ न हो सकेगा
बेहतर है इतंजार करना सुबह का
अब नौ बजे फाल्ट जाके ठीक हुआ है
मुआ काम चंद मिनटों का था जो
घन्टों सात में जाके ठीक हुआ है।

राहत मिल बड़ी गई है
बिजली फिर ठीक हो गई है
पंखा चलने लगा है
हवा थोडी थोडी मिलने लगी है
खुशी इस बात की अधिक है
नैट भी फिर से चल पड़ा है
यह कविता मैं पोस्ट कर रहा हूँ
गम अपना आपसे बाँट रहा हूँ।

कितने असहाय हो चले हैं
सहारे बिना चल नहीं पा रहे हैं
सहारे के सहारे जिन्दगी हो गई है
छड़ी की जरूरत महसूस हो रही है
छड़ी भी तो आखिर है इक सहारा
सहारे को सहारे की जरूरत आन पड़ी है।

//surendrapalsingh//
08 27 2014

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