कलम से____
रात के अधिंयारे
पावं मेरे
अपने आप उठते रहे
उस ओर बढ़ते रहे
झील के उस ओर
जहाँ तू रहता था
होश ही नहीं रहा
मैं जमीन पर हूँ
या आसमां पर
होश आया
देखा चली आई थी
दूर बहुत झील के ऊपर।
सर्द हवाओं के
बीच होंठ थे
कांप रहे
हाथों के पोर थे
जमे से हुए
भीतर की आग थी
जो बुझती न थी
मिलन को तरसती।
मिले थे तुम
इस सफर के
आखिरी छोर पर
बाहें मेरी ओर फैला
इतंजार करते।
होश बहोश थे हमारे
आगोश में थी तुम्हारे
प्यार की तपिश ही काफी थी
हमारे औ' तुम्हारे लिए ...........
//surendrapal singh//
http://spsinghamaur.blogspot.in/
रात के अधिंयारे
पावं मेरे
अपने आप उठते रहे
उस ओर बढ़ते रहे
झील के उस ओर
जहाँ तू रहता था
होश ही नहीं रहा
मैं जमीन पर हूँ
या आसमां पर
होश आया
देखा चली आई थी
दूर बहुत झील के ऊपर।
सर्द हवाओं के
बीच होंठ थे
कांप रहे
हाथों के पोर थे
जमे से हुए
भीतर की आग थी
जो बुझती न थी
मिलन को तरसती।
मिले थे तुम
इस सफर के
आखिरी छोर पर
बाहें मेरी ओर फैला
इतंजार करते।
होश बहोश थे हमारे
आगोश में थी तुम्हारे
प्यार की तपिश ही काफी थी
हमारे औ' तुम्हारे लिए ...........
//surendrapal singh//
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