Wednesday, July 23, 2014

स्कूल बंद हुए, गरमी की छुट्टियां हुई, हम जाते थे अपने गाँव, रहती थी जहाँ सपनों की धूप छाँव ।

कलम से _ _ _ _

स्कूल
बंद हुए,
गरमी 
की छुट्टियां हुई,
हम जाते थे अपने गाँव,
रहती थी जहाँ
सपनों की धूप छाँव ।

आ जाती थी
बैल गाड़ी और हो जाते थे
हम सभी सवार,
धीरे धीरे
सधी लीक पर चलती जाती
गलीगलियारौ को करती पार !

धर आते ही दादी अम्मा
चढती जाती जीना
एक दो चार
अटरियाहवेली की जहाँ लगे
खूब बयार,
दौड़-भाग और कुदाले
मारे हम सब मिल 
दोस्त यार।

दुपरिहा भारी
तब आवे
रामू काका
हो साइकिल
पै सवार,
लाल पीली हरी
बेचे वो बच्चन को
घिस-घिस बफॆ रसीली
लचछेदार।

सलीम ममुआ ले आते
बकसिया मे रख
बाइसिकल 
पै हो सवार,
बुढिया के बाल
खाय जिसे हम
बच्चे हो जाये निहाल।

रात होत
निदिया सतावे
गीत बनाए अपना मीत
जुगनू आगे पीछे घूम
खूब सतावे
तब अम्मा पैतियाने बैठ
मूज के पंखे से 
हल्की-हल्की बयार।

कटती अच्छी छुट्टी 
मन खूब भाती थी
दिवा सवपन हुए वह दिन 
वचपन के
अब कहाँ पायेगे उनको हम
जो पीछे छूटे नाते सब टूटे
सपने ही रह जायगे,
वैसी छूटटी कब-अब पायगे ।


सपना सा लगता है
बचपन अपना,
दूर कहीं खुदसे जाते
साथ छूटता अपनेपन से
नहीं किसीको कुछ समझापाते।

//surendrapalsingh//

07242014

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